जनवरी 24, 2010

अल्फाज़

 तकदीर को छोड़कर,
चाँद यादों को जोड़कर. 
आओ करें कुछ सौदे.
अल्फाजों को बेच खुशियाँ खरीदें,
ग़मों के बदले अल्फाज़ बटोरें,
 कुछ सौदे आज पूरे करें ......
चौपड़ में पासे फेंककर.
कुछ बज़िंयाँ और लगायें.
दुर्योधन को डरा और
शकुनी को हरा........
   कालजई ग्रंथों में अमर हो जायं .........  








    वेदांश 
    

पैबंद

        दिलोदिमाग में जब छिड़ी जंग,
किसी ने दिल का साथ दिया,
 तो किसी ने दिमाग का.......
इस दिलोदिमाग कि बाज़ी में ,
तू जीतेगा या मैं !
खुद को मैंने टटोला ,कभी दिल को खोला,
तो कभी दिमाग को खंगाला,फिर कुछ
बडबडा कर बोला ................
कहाँ है वजूद मेरा????
वो तंग गलियाँ यादों की,
        वो बीती घड़ियाँ उन बातों की,और
        वो कहानी उन उन सर्द,स्याह रातों की,
        गुजरकर भी न सोचा ,कभी-
        -वो गलियां तो तंग हैं,.......
        आज लगता है तभी शायद ,
       ज़िन्दगी इतनी बेरंग है ....
       वो गलियां शायद रंगीन न थी ,
       रंगीन थे भी,तो,किस्मत पर लगे पैबंद,
      कभी सुर्ख,कभी स्याह,कभी सब्ज़
      तो कभी कोरे ...........




   वेदांश 

अर्थ का अनर्थ .......(गुमनामी एक पंथ,मज़हब या फिर ..........)

  परेशां हो खुद की दलीलों से ,
अपनों से बेगाना हो ,
बैठा जब इन पत्थरों पर,.
ख़ामोशी को सुना ,बेहोशी गंवाई ,सपने आए,
पर नींद न थी.............
सपने दो तरह के होते हैं ,एक वो जो नींद के साथ आते हैं ,और दुसरे नींद खत्म होने के बाद,मेरे ख्याल से इन दोनों में सिर्फ एक ही फर्क हो सकता है पहले में तुम डर सकते हो और दूसरे से तुम डरा सकते हो ...वैसे ये तो  बहुत ही बेतुखी बात है जो सिर्फ में ही कर सकता हूँ ........
अगर नींद पर पुराण जैसा कोई ग्रन्थ लिखा जाय ,तो मुझे पूरा भरोसा है कि वह एक नया इतिहास रचेगा ,इससे एक बड़ा नुकसान हो सकता है ,मेरी जमात के कई लोग बिलकुल मेरे जैसे ही इस ग्रन्थ को पढ़कर बड़े -बड़े वाइजों को मात दे सकेंगे,...ये भी मुमकिन हैं है एक नया ही पंथ शुरू हो जाय,सोच में ही सही मैं तो अभी से उस मज़हब का blueprint तैयार करने लग गया हूँ.अभी बहुत काम करने हैं,मज़हब का खाका तैयार करना है कुछ शर्तें तैयार करनी हैं,सबसे पहले तो ये ज़रूरी है कि मज़हब का नाम सोचा जाय ऐसे में मुझे एक महान आदमी का नाम याद आ रहा है, फिर मैं सोचता हूँ नाम में क्या रखा है इसीलिए उनके उच्च  विचारों को ही आप तक पंहुचा देता हूँ, वो ये कहकर मेरे छोटे से दिल में अपने लिए बड़ी सी जगह बना  गए  हैं कि ''अजगर करे न चाकरी पंछी  करे न काज,दास मलूका कह गए सबके दाता राम '' वाह क्या सोच है सबके दाता राम लेकिन मैं इतना कर्मठ तो हूँ ही कि एक आदमी के भरोसे नहीं बैठ सकता तो यहाँ पर राम कि जगह  कुछ विकल्ल्प  रख लेते हैं, मेरे लिए राम कि जगह कोई भी हो सकता है ,वो राम प्रसाद ये कोई भी राम हो सकता है ,..राम ही क्यों वो श्याम ,महेश,गणेश,दिनेश.... कोई भी हो सकता है या सब के सभी हो सकते हैं अब ये तो मैंने कह ही दिया है कि नाम मैं क्या रखा है,इसीलिए  इस मज़हब को गुमनाम ही रखना ठीक है या नाम गुमनाम रख देते हैं,...चलो नाम कि सरदर्दी ओह माफ़ करना गुमनाम कि सरदर्दी हटी ,तो अब से हम इसे गुमनाम मज़हब कहेंगे..
  वैसे इस नाम से फ़ायदा भी है,लेकिन एक परेशानी भी आ सकती है धर्म परिवर्तन की,एक गुमनाम मज़हबी बदनाम हो सकता है पर एक बदनाम मज़हब वाला हमारे गुमनाम मज़हब में नहीं नहीं आ सकता ,ये तो बड़ी ही दिक्कत वाली बात है लेकिन अभी इसे छोडिये जब होगा तब देखा जायगा,अभी गुमनाम मज़हब का blueprint तैयार करना ज्यादा जरुरी है ,एक मज़हब बहुत विस्तृत होता है ऐसा मैंने सुना है इसीलिए ज्यादा पन्ने ख़राब करने में लगा हूँ क्यों की हर मज़हब की branches की अलग value  होती है ,तो ऐसा शो करने के लिए पन्ने ख़राब करना ज़रूरी है ,आखिर इन से ही तो मंत्र,शलोक और सुवचन जैसी क्रियाएँ निकलेंगी ,जिनको सीखकर कई विद्द्वानों को रोज़गार मिलेगा ,आखिर एक मज़हब शुरू करते हुए मुझे तो ये सब सोचना ही पड़ेगा .....
      ये एक तरीके से संक्षिप्त सार है आगे ज़रूरत के हिसाब से पन्ने दर पन्ने ,अध्याय दर अध्याय जुड़ते जायंगे...........
                                                                                                                                          क्रमशः ........




   


     वेदांश 
    
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जनवरी 23, 2010

तभी तो इंसान हूँ मैं!


थोड़ा गिरा हुआ,थोड़ा संभला हुआ....
गर्दिशों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ ,
इंसान हूँ मैं..
हाँ ठिठक जाते हैं मेरे कदम,
उन बेगानों को देखकर ..
जो नसीब के भी अपने नहीं,
और हाँ...
कभी बहक भी जाते हैं मेरे कदम,
रिश्तों के नासूर अपनों को देखकर..
बैठता हूँ ,सोचता हूँ और सब भूलकर 
कुछ लिख ही लेता हूँ मैं .....
आज  रिश्ते तराजू में तुलते हैं ......
क्या तू ?क्या मैं ?
एक ही सांचे में सब ढलते हैं ,
तभी तो ...
इन्सान हूँ मैं ,बैमानों में ईमान हूँ मैं.....
आज मैं खाना नहीं ,
खान खाता हूँ...........
कभी कोयले की, कभी खुद की ..
मेरी उस खान में 
आदमी ही जलते हैं,
 कभी इधर के कभी उधर के ,
पानी नहीं,
 उसी आग को पीता हूँ मैं ...और अंगारे 
उगलता हूँ मैं,
क्या?इंसान हूँ मैं?
घरों को तोड़ मकान बनता हूँ मैं ,
बस्तियां भी तो घरोंदो को 
उजाड़ के ही बसा पता हूँ मैं ..............
भीड़ में खोना  मेरी फितरत है
 और भीड़ बनाना मेरी जरुरत ,....... 
रंगों में घुलना मेरी ज़िन्दगी है,
और सबको बदरंग करना मेरी मज़बूरी ,
तभी तो इंसान हूँ मैं ,बस इंसान ही हूँ मैं!




 वेदांश 

जाने क्यों... ??







जाने क्यों सब उल्टा- पुल्टा लगता है ,
हममे शायद,
 कोई और भी बसता है,
औरों के जख्मों को सीना होता है ,
तभी तो हमें मयकदों में
 पीना होता है ,  
मयकदों में शराब रोज़ ही गिरती है,
 पर पैमानों से तो कभी कभार ही छलकती है .
जाने क्यों सब उल्टा लगता है ,
हममे शायद कोई और भी ..... 
सूनसान जहां है सारा ,
हर कोई ,
किस्मत का है मारा....
और
 ये वेदांश जाने किस -किस से हारा.. 
कहते हैं ये दुनिया गोल है ,
कैसा ये सिस्टम ? जिसमे इतने होल हैं ,
बैठोगे ,सोचोगे तो जानोगे ..
क्यों? 
ये सब उल्टा लगता है..
और हममे भी कोई और बसता है ,
दिल की म्यान में दिमाग के खंज़र रखे है ,
और दिमाग की
ढाल में सैकड़ो पैबंद लगे हैं .....
किसी ने सीने में पत्थर रखे हैं ,तो किसी ने 
पत्थर में सीना मारा ..तभी तो .
आदम से सीखा हमने अश्कों को बहाना ,
जिस्म के सांचे में लहू जम गया है, और
आज एक और कवि मर गया है,....
इसीलिए तो सब उल्टा -पुल्टा लगता है ,और
हममे कोई और भी बसता है........................


     वेदांश