अक्तूबर 23, 2011

चूं-चूं चूं-चूं

भोर साँझ बस चूं-चूं करता लकड़ी का पुल,
जिसे कस दिया गया दो डोरों के बीच,
और नाम दे दिया गया ज़िन्दगी,
किसी ने बरगलाया था उसे .
ये कहकर...
की तुम एक सूत्रधार हो,
सूत्रधार...
 जन्म-मरण के बीच पनपी तिल-तिल मौत के
सूत्रधार...
 भोर-साँझ के बीच पनपी तिल-तिल मौत के
और सूत्रधार...
इस पाट से उस पाट के बीच स्याह काले अँधेरे के,
इस जायज़ सूत्र के हे नाजायज़ सूत्रधार,
तू नाजायज़ था या बना दिया गया  
और
कहाँ गयी तेरी जड़ें जिनसे जुदा,
 तू महज़ लकड़ी का एक तख्ता है,
अच्छा एक बात बता पहले जन्मा लोकतंत्र या तू  ,
या
 थर्मामीटर में कैद परे की तरह तू अब भी वहीँ है, जहाँ था ,
अब तू खामोश है,तू खामोश रहेगा..
जब तक कोई तेरे ऊपर से गुज़र न जाय
तेरे ऊपर से तेरी तख्तियों के वजूद को कुचलते हुए ,
फिर आवाज़ आएगी चूं -चूं ,चूं-चूं
 हर तख्ती बारी बारी पैरों तले रौंदी जाएंगी
 और फिर सारी तख्तियां आवाज़ उठाएंगी 
चूं-चूं चूं-चूं