दिसंबर 28, 2011

हाशिया

तू इस पार, मैं उस पार.
इस पार  या उस पार.
हाशिये के आर पार,
आर या पार,दोनो हैं, बेकार.
मैं भी शब्द और तू भी,
तू हाशिये के आर, मैं पार.
लेकिन.. कौन आर.
 कौन पार.
ये सोचना है,बेकार.
तू भी  साथ,मैं भी साथ.
फिर..क्या उस हाशिये की बिसात,
हाशिया है, एक सीधी रेखा.
क्या उसने कभी दाएं बाएँ देखा,
दाएं बाएँ भी हैं.. कई रेखा.
उनके बीच में हमको समेटा,
दीवार या स्केल,
दोनों का खेला एक ही खेल,
बना दो कोठा या फिर जेल
सीधी रेखा का रचा  झमेला
हाशिये  को भी था ,
कभी..
इसी इंक ने  उकेरा....

अक्तूबर 23, 2011

चूं-चूं चूं-चूं

भोर साँझ बस चूं-चूं करता लकड़ी का पुल,
जिसे कस दिया गया दो डोरों के बीच,
और नाम दे दिया गया ज़िन्दगी,
किसी ने बरगलाया था उसे .
ये कहकर...
की तुम एक सूत्रधार हो,
सूत्रधार...
 जन्म-मरण के बीच पनपी तिल-तिल मौत के
सूत्रधार...
 भोर-साँझ के बीच पनपी तिल-तिल मौत के
और सूत्रधार...
इस पाट से उस पाट के बीच स्याह काले अँधेरे के,
इस जायज़ सूत्र के हे नाजायज़ सूत्रधार,
तू नाजायज़ था या बना दिया गया  
और
कहाँ गयी तेरी जड़ें जिनसे जुदा,
 तू महज़ लकड़ी का एक तख्ता है,
अच्छा एक बात बता पहले जन्मा लोकतंत्र या तू  ,
या
 थर्मामीटर में कैद परे की तरह तू अब भी वहीँ है, जहाँ था ,
अब तू खामोश है,तू खामोश रहेगा..
जब तक कोई तेरे ऊपर से गुज़र न जाय
तेरे ऊपर से तेरी तख्तियों के वजूद को कुचलते हुए ,
फिर आवाज़ आएगी चूं -चूं ,चूं-चूं
 हर तख्ती बारी बारी पैरों तले रौंदी जाएंगी
 और फिर सारी तख्तियां आवाज़ उठाएंगी 
चूं-चूं चूं-चूं 

अगस्त 16, 2011

हस्ता-ला-विक्तोरिया-सियाम्प्रे

 ये मेरा देश है,यहाँ 
कुछ भी अचानक नहीं होता...
न तो सोने की चिड़िया अचानक फुर्र हो जाती है,
न तो विश्वगुरु अचानक अंतर्ध्यान हो जाते हैं,
बस कुछ ही चीज़ें हैं, जो अचानक हो जाती हैं...
अचानक हम गुलाम बन जाते हैं,
अचानक पड़ोसी की भैंस यहाँ ब्याने आ जाती है,
और,
अचानक ही उसके पीछे लाठी भी चली आती है,
बाकीं तो यहाँ कुछ भी अचानक नहीं होता,
बस थोड़ा कुछ है जो अचानक ही हो जाता है,
                  हस्ता-ला-विक्तोरिया-सियाम्प्रे 

अप्रैल 19, 2011

अदालत........: आम आदमी

अदालत........: आम आदमी

आम आदमी

 आम आदमी है तू ...
बोलेगा तो सोचेगा और सोचेगा
 तो लब सिल जाएँगे तेरे 
बोल नहीं पाएगा तू ...
गर बोल भी दिया तो क्या ...
फिर वही मुनादियों  का खेल होगा 
और घोषित कर दिया जाएगा...
तुझे,
 भटका हुआ... नासमझ आम आदमी..
फिर तू मनाएगा एक शोक सभा ..
लोग आएंगे  झुकी गर्दन से शोक मानेंगे 
अकड़ तो शरीर की है ...तो क्या ?
हाँ फिर सफ़ेद रौशनी का एक भभका निकलेगा ..
आवाज़ आएगी क्लिक...
और तू उस शोक सभा आन्दोलनकारी बन जाएगा ....

मार्च 05, 2011

मैं और वजूद

 खुद की तलाश में ...
अक्सर बैठ जाता हूँ ऐसी जगह,
जहाँ मेरा वजूद मेरा साथ छोड़ देता है...
तब खुद को खुद के करीब पाता हूँ,
बहुत खुश होता हूँ मैं...
लेकिन मेरा वजूद कुछ नाराज़ सा रहता है...  
पर क्या करूँ ?
न चाहकर भी उससे हार जाता हूँ......


वेदांश.....

मई 29, 2010

दरख़्त

भीड़ में बैठा अक्सर देखा  करता हूँ ......
हाड़-मांस के कुछ दरख्तों को,
सूखे से,सीना ताने..
अपनों के बीच बेगाने से,
लहू कबका सूख चुका है,
बचे हैं सिर्फ कुछ..
निशां...
 सुर्ख से,
क्या ये ???
साँस लेते होंगे....
हाँ ,दिल तो है,
पर धड़कन कहीं गम हो चुकी है,
स्याह,अँधेरी रात कि गहराईयों में ,
इन दरख्तों के वीरान जंगल से..
 जो भी गुज़रता है,
 वो तब्ब्दील हो जाता है
इन  दरख्तों में ...






          वेदांश...... 







मार्च 11, 2010

अब वहां सिर्फ मकान हैं जिनमें.........

     उनको मैं अभी तक नहीं भूला,फिर भी चेहरे की कुछ धुंधली यादें ही शेष हैं,चेहरे का रेखाचित्र मैं न तब खीच सकता था,और न तो अब, उनकी पहचान मेरे लिए थी सिर्फ नाना जी नाम से,वो सबके नहीं पर मेरे तो नाना ही थे यानि की मेरी पूज्य माँ के पूज्य पिता श्री....
   दिमाग के किसी कोने में अवचेतन मस्तिष्क को काफी कुरेदने के बाद भी नाना जी की यादें सिमटी हैं, बस उनके  चेहरे की झुरियों से,उनका अक्स झलकता था उनके चश्मे से,और उनका वो खांसना  जो ख़ुद में एक सम्पूर्णता समेटे हुए था,मेरे लिए तो नाना जी की इतनी यादें ही हैं और यही उनकी पहचान भी....
   माँ बताती हैं जब नाना जी आते थे,तो सड़क से ही उनके खांसने  की आवाज़ से ही नानी चाय बनाने चूल्हे में रख देती थीं और घर के सरे बच्चे जस के तस चेतनाशुन्य हो जाते थे,किसी की खांसी में छुपी ख़ामोशी का ऐसा प्रभाव मैंने  आजतक नहीं देखा,कहने को बच्चे अपनी माँ के मायके को नानी का घर कहते हैं,पर हमारे लिए तो वो था सिर्फ नाना जी का घर,मुझे लगता है वक़्त कभी नहीं बदलता... हाँ एक छोटा  सा फ़र्क ज़रूर आ जाता है जो  कई बार फासले बनाता  जाता है,नाना जी का घर तब ऐसा लगता था मानो अपने आप में पूरा शहर हो,उस घर का एक चक्कर लगाने में हमे मीलों का सफ़र तय करना पड़ रहा है लेकिन ये बाल मन की उद्विग्नता ही तो है,की हर छोर पे आने के बाद प्रतीत होता था शायद कुछ जगह और भी रह गए हैं,और हम बच्चे औघड़ों से डरने के बावजूद ख़ुद औघड़ बने फिरते थे, जिसे रास्ते  का तो पाता नहीं है परन्तु परमानंद की प्राप्ति हो रही है..घर के सामने एक कनेर का विशाल पेड़ था,जो सुबह सिर्फ  नानी को पूजा के फूल ही नहीं समर्पित करता था वरन हम बच्चों के लिए तो वो एक समर्पित पिता के सामान वात्सल्य रुपी छाव लुटाता था और  वहीं एक सखा की भांति हर खेल में,ईर्ष्या के भाव में,क्रोध में हमेशा हमारा साथ देता था. आज मुझे लगता है जरूर किसी जन्म में वो पेड़ चन्द्रमा होगा ,तभी तो वो सारी कलाएं उसमे विद्यमान थीं...
    घर के ठीक सामने तुलसी का एक चबूतरा था,जो हमारे लिए सिर्फ नानी का था और यही एकलौती ऐसी चीज़ थी जिसे हम नानी की प्रोपर्टी समझते थे,उनमे हमेशा एपड डाले जाते थे, हमें उनदिनों एक खास दिन एक खजाने की बड़ी उत्सुकता से प्रतिक्ष्या  रहती थी,वो खज़ाना था,पूजा के बाद मिलने वाली चुंगी और लड़की के बच्चे होने के नाते हमे इसमें वरीयता दी जाती थी,जो की उस समय हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात होती थी,एक स्थान था जहाँ जाने की हमें तीव्र इच्छा रहती थी,वो था नाना जी के खेत और यही एक सीमा थी,जहाँ से अन्दर जाना हमारे लिए किसी देश की सीमा लांघने से भी कठिन था, उस सीमा पर डर था,न तो किसी बन्दूक का,न किसी तोप का,वो था सिर्फ नाना जी की खासी का, वहां हमारे लिए दुनिया भर की चीज़ें थी जो भले ही और किसी के लिए बेमूल्य हो हमारे लिए तो अमूल्य थी,नारंगी का पेड़,मौसमी का पेड़, सेब, आडू,पुलम ,खोखो और भी जाने क्या-क्या, जो हमें इन्द्रधनुष के सातों रंगों और कल्प्वृक्ष्य से अधिक आकर्षक और स्वादिष्ट लगते थे ...वहीं खेतों की मेड़ों में सबसे नीचे एक बांस का पेड़ भी था,क्या तो तुलसीदास को प्रभुदर्शन की और क्या नील-आर्म-स्ट्रोंग को चाँद में पैर रखने की जल्दी होगी,जितनी हमें वहां जाने की होती,मौका मिला नहीं की सरे बच्चे राम-रावण की सेना बनाने पहुचे,सभी कहा करते थे की वहां साँप रहते हैं ,पर हम भी तो  आखिर जन्मेजय थे,तो क्या साँप क्या नाग,सबको भस्म तो हमारे आनंद की ज्वाला में ही होना था . घर की दूसरी तरफ गोठ के बाहर तो हमारे लिए एक अलग ही दुनिया थी, अकेले जाने की तो हिम्मत तो थी नहीं लेकिन जहाँ २-३ मिले नहीं वहीं रम गए ...
      समय तो अधिक नहीं बीता लेकिन कुछ चीज़ें बदल गई  हैं,हम थोरे से बड़े हो गए हैं लेकिन अब वो घर बहुत ही छोटा हो गया है, और हाँ एक बात और अब वहां न नाना जी हैं,और न तो नाना जी का घर,अब वहां सिर्फ मकान हैं जिनमें मामा लोग रहते हैं...

फ़रवरी 17, 2010

पाश-पाश हुआ मकां मिरा,


क़ुबूल कर ली जब,


खुदा ने दुआ घर की सलामती की ....






  वेदांश.... 

फ़रवरी 16, 2010

क्या तुमने ? क्या हमने....

शोर-शराबे को भूलकर ,
अपने को...
तक़दीर के भरोसे छोड़कर,
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
ज़मीन पर लक्ष्मण रेखा खींचकर ,
दुनिया को टुकड़ों में बांटकर ...
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
इन्द्रधनुष को सात रंगों,
किसने बांटा ?  
काले-सफ़ेद को दुनिया में,
क्यों पाटा ?
ये तेरा ,ये मेरा...
किसने बुना ये ताना-बाना..............................


  वेदांश.....

फ़ासले.....

ज़िन्दगी को बाज़ी समझकर,
सबने किये सौदे....
कुछ तुमने , कुछ हमने,
फ़र्क क्या था ?
वक़्त बदला था, या
बढे थे फ़ासले ?
वक़्त तो वहीं है...
बस,
बदले हम और तुम,
फिर बढ़े फ़ासले...  
कभी तुम पीछे हटे,
कभी ! हम आगे बढ़े, 
एक-एक कदम से बने थे,
फ़ासले....
मीलों पीछे आकर,
क्या ? मिट पाते ये
फ़ासले....
अब तो बढ़ना होगा ,
हमको...
एक कदम तुम ,और 
एक कदम हम...  


   वेदांश......  

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी के सफ़र में  ,
ख़्वाबों की तामीर में,
रिश्तों की रुसवाई में,
और
अपनों के बीच तन्हाई में,
खुले मुंह दफ़न होती हैं ,
कई सिसकियाँ ....
सन्नाटों के इस शहर में ,
उठती है अक्सर एक आवाज़,
जिसे कायनात भी अपने में समेट न सकी,
पल-पल बनते औ मिटते निशां.....
हर घड़ी  खत्म होता जहाँ का वज़ूद  ,
और ख़ुद को पते हम एक नए जहाँ में ,
कभी उम्मीद और नाउमीद  से मोलभाव करते ,
कभी ख़ुद का वज़ूद तलाशते .....      



 वेदांश.... 

वज़ूद

ज़बान से ज़ख्म खाए हैं,
हमने...
खंज़र क्या बोल पायेगा...
हर नज़र ने जलाया है ,
रोशन आग...
क्या ? बुझा पायेगी,
यादों के सैलाब उमड़ते हैं ,
इस दिल में ...
क्या आंधी , क्या तूफ़ान..
वज़ूद मिरा मिटा पाएंगे ....  




 वेदांश....        

सौदे...


यहाँ-वहां , इधर-उधर... 


है परेशानी का सबब ,


ज़िन्दगी के इस सफ़र में ,


ख़्वाबों  की तामीर को ,
तराज़ू में तोलकर...
हर कोई कर रहा है ,


सौदे...


मैंने भी किये,


और 


कर रहा हूँ ...


अल्फाज़ों को बेच,


खुशियाँ खरीदी ....


वहीं कुछ ,


नगमे भी खरीदे,


ग़मों को बेच....    








 वेदांश......

चीखो.......चिल्लाओ...............

चीखो और चिल्लाओ ,


दिल के दरवाज़ों को खोल दो,


दिमाग को ख़ाली करो,


इसकी दीवारों पर करो आज,


चित्रकारी .........


ग़मों की कूची को,


खुशियों के रंग में,


डुबोकर .........


आज बनाओ कुछ ऐसा....


कोई न बना सके,


फिर कुछ वैसा......




  वेदांश........ 

आगे निकल आये हम ...

कितने ?आगे निकल आये हम ,


रिश्तों को छोड़ , दोस्ती भूल ,


और कुछ वफ़ाओं को तोड़...


कुछ कर गुज़रने की चाह में ,


क्या ? पीछे छोड़ आये हम...


कितने ? आगे निकल आये हम ...


बची यादों को समेटने का ,


वक़्त भी तो न निकाल पाए हम ,


आंसू सूखे आँखों के ,लफ्ज़ भी 


ज़बान में सिमट गए ...


काजल की कोठरी से भी ,


कोरे ही निकाल आए हम ...


वक़्त को कहाँ ? पीछे छोड़ आये हम ........



  वेदांश....
मानव को कचोटती!


दिगदिगंत तक गूंजती,


एक आवाज़....


आवाज़,आदेश या


अनुगूँज...


अंतरिक्ष से आती,


अनन्त में समा जाती..


कोई ? समझ न पाता,
क्या ?
कोई ? समझ न
पाया,नहीं ! 
समझ गए वे, 
जिनमे थी ,
समझ...
समझ,उतावलापन 
या फिर ,
पागलपन....




समझ गए थे,
आइन्स्टीन,विवेकानंद और 
अरस्तु ...
और 
रची एक नयी श्रृष्टि ,
जिसने दी हमे ,
दृष्टि ...
समझ जाते गर हम भी ,
तो....
हमारे हिस्से की आवाज़ भी,
यूँ ही...न समा जाती अनन्त में ...
और 
हम भी होते आज,
मार्ग प्रणेता .... 






 वेदांश.....  

नमन है ... दिव्यरूप,जगत्व्यापी माँ..

जिसको हम कहते हैं माँ...


जिसमे सिमटा है पूरा जहाँ,


इस शब्द जैसा और.. कोई ?कहाँ?


प्यार है इसका चांदनी रात ,


लगता न ग्रहण उस प्यार में,


रहती हमेशा पूनम सी धवल छाया ,


दूधिया ज्ञान की रौशनी में ,इसके


बनती है एक इंसानी काया ,


रहता जिसका आशीर्वाद ,


बनकर हमारा साया ,


गंगा से भी निर्मल,पावन है,


 जिसका आंचल.....


नयनों से बरसती है ममता,


क्या इंसान,क्या पशु...


सबका मन उसी में रमता,


है क्या?कोई भाग्यशाली हमसा ....





वेदांश...

सुकून ...........

 नहीं रहा अब,वो सुकून ,


ज़ख्मों को कुरेदने में ,


यादों को सहेजने में,


टूटे शीशे जोड़ने में,


कुछ शर्तों को तोड़ने में,


 और,


अपने साये को पीछे छोड़ने में...



हाँ गुरेज़ नहीं मुझे कहने से ,


ज़िन्दगी थी मेरी भी,


 जैसे बिन पानी मीन,


पर,


कहने को हम भी आबाद थे ,इतने


न बर्बाद थे...


कुछ बेफ़िक्र से ,कुछ आज़ाद से ,


बंज़र टीले के मगरूर बादशाह से,


 रोज़ो -शब्, शामो-सहर ..


रहती है एक ही ख़लिश दिल में,


काश न सुन पाते ,दिल की आवाज़....

  


 वेदांश .....

फ़रवरी 14, 2010

एक प्रेमी की डायरी

      इश्क के समुन्दर में गोते लगाते हुए, मैं याद कर रहा हूँ उस दिन को जब मैंने तुम्हे देखा था ...वो मंज़र धीरे-धीरे मेरे पूरे जिस्म में ,मेरे दिमाग में और हाँ मेरे दिल में भी बसता जा रहा है ...तुम्हारी वो हंसी,तुम्हारे लबों से छूता हर एक अल्फाज़ मेरे कानों में गूंज रहा है जो उस वक्त चाहकर या न चाहकर अनायास ही फूटे थे....वो हर अलफ़ाज़,वो हंसी अब तब्ब्दील होकर मेरी आँखों के सामने घूम रहे हैं .....
     मुझे लगता है तुम मेरे पास ही हो ,पर जब ऑंखें खोलता हूँ तो तुम कहाँ चली जाती हो ? शायद इसलिए की इश्क का पहला कलाम ही इबादत से शुरू होता है ,और इबादत की रह में मुश्किलें तो आती ही हैं ,..तभी मैं सोचता हूँ जब हम मिले ही अल्लाह के फज़ल से हैं तो उसे पाने में इतनी इबादत क्यों ?सवाल यहाँ इबादत का नहीं है ,सवाल है यहाँ न होते हुए भी तुम्हारी मौजूदगी से आखिर क्यों तुम मेरे पास नहीं हो ?इसी सवाल ने मेरी पूरी रत जायर कर दी,तभी कही से एक तस्वीर उड़कर आयी मैं कुछ देर सोचता रहा तभी उस तस्वीर से तुम्हारा अक्स बोल पड़ा 'अल्लाह किसी बन्दे को ये दिन तभी दिखाता है,जब वो तुम्हे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाये ,आखिर अल्लाह का नूर हमारे इश्क के चेहरे से ही तो झलकता है ,जो कभी आपकी यादों को हमसे जुदा नहीं होने देता ....      
                                                                                                                      
                                                                                                               वेदांश