उनको मैं अभी तक नहीं भूला,फिर भी चेहरे की कुछ धुंधली यादें ही शेष हैं,चेहरे का रेखाचित्र मैं न तब खीच सकता था,और न तो अब, उनकी पहचान मेरे लिए थी सिर्फ नाना जी नाम से,वो सबके नहीं पर मेरे तो नाना ही थे यानि की मेरी पूज्य माँ के पूज्य पिता श्री....
दिमाग के किसी कोने में अवचेतन मस्तिष्क को काफी कुरेदने के बाद भी नाना जी की यादें सिमटी हैं, बस उनके चेहरे की झुरियों से,उनका अक्स झलकता था उनके चश्मे से,और उनका वो खांसना जो ख़ुद में एक सम्पूर्णता समेटे हुए था,मेरे लिए तो नाना जी की इतनी यादें ही हैं और यही उनकी पहचान भी....
माँ बताती हैं जब नाना जी आते थे,तो सड़क से ही उनके खांसने की आवाज़ से ही नानी चाय बनाने चूल्हे में रख देती थीं और घर के सरे बच्चे जस के तस चेतनाशुन्य हो जाते थे,किसी की खांसी में छुपी ख़ामोशी का ऐसा प्रभाव मैंने आजतक नहीं देखा,कहने को बच्चे अपनी माँ के मायके को नानी का घर कहते हैं,पर हमारे लिए तो वो था सिर्फ नाना जी का घर,मुझे लगता है वक़्त कभी नहीं बदलता... हाँ एक छोटा सा फ़र्क ज़रूर आ जाता है जो कई बार फासले बनाता जाता है,नाना जी का घर तब ऐसा लगता था मानो अपने आप में पूरा शहर हो,उस घर का एक चक्कर लगाने में हमे मीलों का सफ़र तय करना पड़ रहा है लेकिन ये बाल मन की उद्विग्नता ही तो है,की हर छोर पे आने के बाद प्रतीत होता था शायद कुछ जगह और भी रह गए हैं,और हम बच्चे औघड़ों से डरने के बावजूद ख़ुद औघड़ बने फिरते थे, जिसे रास्ते का तो पाता नहीं है परन्तु परमानंद की प्राप्ति हो रही है..घर के सामने एक कनेर का विशाल पेड़ था,जो सुबह सिर्फ नानी को पूजा के फूल ही नहीं समर्पित करता था वरन हम बच्चों के लिए तो वो एक समर्पित पिता के सामान वात्सल्य रुपी छाव लुटाता था और वहीं एक सखा की भांति हर खेल में,ईर्ष्या के भाव में,क्रोध में हमेशा हमारा साथ देता था. आज मुझे लगता है जरूर किसी जन्म में वो पेड़ चन्द्रमा होगा ,तभी तो वो सारी कलाएं उसमे विद्यमान थीं...
घर के ठीक सामने तुलसी का एक चबूतरा था,जो हमारे लिए सिर्फ नानी का था और यही एकलौती ऐसी चीज़ थी जिसे हम नानी की प्रोपर्टी समझते थे,उनमे हमेशा एपड डाले जाते थे, हमें उनदिनों एक खास दिन एक खजाने की बड़ी उत्सुकता से प्रतिक्ष्या रहती थी,वो खज़ाना था,पूजा के बाद मिलने वाली चुंगी और लड़की के बच्चे होने के नाते हमे इसमें वरीयता दी जाती थी,जो की उस समय हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात होती थी,एक स्थान था जहाँ जाने की हमें तीव्र इच्छा रहती थी,वो था नाना जी के खेत और यही एक सीमा थी,जहाँ से अन्दर जाना हमारे लिए किसी देश की सीमा लांघने से भी कठिन था, उस सीमा पर डर था,न तो किसी बन्दूक का,न किसी तोप का,वो था सिर्फ नाना जी की खासी का, वहां हमारे लिए दुनिया भर की चीज़ें थी जो भले ही और किसी के लिए बेमूल्य हो हमारे लिए तो अमूल्य थी,नारंगी का पेड़,मौसमी का पेड़, सेब, आडू,पुलम ,खोखो और भी जाने क्या-क्या, जो हमें इन्द्रधनुष के सातों रंगों और कल्प्वृक्ष्य से अधिक आकर्षक और स्वादिष्ट लगते थे ...वहीं खेतों की मेड़ों में सबसे नीचे एक बांस का पेड़ भी था,क्या तो तुलसीदास को प्रभुदर्शन की और क्या नील-आर्म-स्ट्रोंग को चाँद में पैर रखने की जल्दी होगी,जितनी हमें वहां जाने की होती,मौका मिला नहीं की सरे बच्चे राम-रावण की सेना बनाने पहुचे,सभी कहा करते थे की वहां साँप रहते हैं ,पर हम भी तो आखिर जन्मेजय थे,तो क्या साँप क्या नाग,सबको भस्म तो हमारे आनंद की ज्वाला में ही होना था . घर की दूसरी तरफ गोठ के बाहर तो हमारे लिए एक अलग ही दुनिया थी, अकेले जाने की तो हिम्मत तो थी नहीं लेकिन जहाँ २-३ मिले नहीं वहीं रम गए ...
समय तो अधिक नहीं बीता लेकिन कुछ चीज़ें बदल गई हैं,हम थोरे से बड़े हो गए हैं लेकिन अब वो घर बहुत ही छोटा हो गया है, और हाँ एक बात और अब वहां न नाना जी हैं,और न तो नाना जी का घर,अब वहां सिर्फ मकान हैं जिनमें मामा लोग रहते हैं...