
मुझे लगता है तुम मेरे पास ही हो ,पर जब ऑंखें खोलता हूँ तो तुम कहाँ चली जाती हो ? शायद इसलिए की इश्क का पहला कलाम ही इबादत से शुरू होता है ,और इबादत की रह में मुश्किलें तो आती ही हैं ,..तभी मैं सोचता हूँ जब हम मिले ही अल्लाह के फज़ल से हैं तो उसे पाने में इतनी इबादत क्यों ?सवाल यहाँ इबादत का नहीं है ,सवाल है यहाँ न होते हुए भी तुम्हारी मौजूदगी से आखिर क्यों तुम मेरे पास नहीं हो ?इसी सवाल ने मेरी पूरी रत जायर कर दी,तभी कही से एक तस्वीर उड़कर आयी मैं कुछ देर सोचता रहा तभी उस तस्वीर से तुम्हारा अक्स बोल पड़ा 'अल्लाह किसी बन्दे को ये दिन तभी दिखाता है,जब वो तुम्हे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाये ,आखिर अल्लाह का नूर हमारे इश्क के चेहरे से ही तो झलकता है ,जो कभी आपकी यादों को हमसे जुदा नहीं होने देता ....
वेदांश
3 टिप्पणियां:
स्वागत है
.तुम्हारी वो हंसी,तुम्हारे लबों से छूता हर एक अल्फाज़ मेरे कानों में गूंज रहा है जो उस वक्त चाहकर या न चाहकर अनायास ही फूटे थे....वो हर अलफ़ाज़,वो हंसी अब तब्ब्दील होकर मेरी आँखों के सामने घूम रहे हैं .....
Khoobsoorat lekhan!
wah kya baat hai...
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