पाश-पाश हुआ मकां मिरा,
क़ुबूल कर ली जब,
खुदा ने दुआ घर की सलामती की ....
वेदांश....
रिश्तों की मुक़र्रर सजा की सुनवाई है आज ,कुछ दलीलें इस तरफ से हैं और कुछ उस तरफ से,गवाहों की कहीं कोई कमी न पड़े यही तो कोशिश है सबकी . कठघरे में खड़ा है थोड़ा सच और थोड़ा झूट !शक्ल अलग है पर है वही .आज फिर लगेंगी बाजियां वही मोहरे होंगे ,वही प्यादे होंगे .तमाशे देखेगा खड़े हो वजीर और ये बादशाह होगा अपनी ही जुस्तजू में ................
फ़रवरी 17, 2010
फ़रवरी 16, 2010
क्या तुमने ? क्या हमने....
शोर-शराबे को भूलकर ,
अपने को...
तक़दीर के भरोसे छोड़कर,
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
ज़मीन पर लक्ष्मण रेखा खींचकर ,
दुनिया को टुकड़ों में बांटकर ...
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
इन्द्रधनुष को सात रंगों,
किसने बांटा ?
काले-सफ़ेद को दुनिया में,
क्यों पाटा ?
ये तेरा ,ये मेरा...
किसने बुना ये ताना-बाना..............................
वेदांश.....
अपने को...
तक़दीर के भरोसे छोड़कर,
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
ज़मीन पर लक्ष्मण रेखा खींचकर ,
दुनिया को टुकड़ों में बांटकर ...
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
इन्द्रधनुष को सात रंगों,
किसने बांटा ?
काले-सफ़ेद को दुनिया में,
क्यों पाटा ?
ये तेरा ,ये मेरा...
किसने बुना ये ताना-बाना..............................
वेदांश.....
फ़ासले.....
ज़िन्दगी को बाज़ी समझकर,
सबने किये सौदे....
कुछ तुमने , कुछ हमने,
फ़र्क क्या था ?
वक़्त बदला था, या बढे थे फ़ासले ?
वक़्त तो वहीं है...
बस,
बदले हम और तुम,
फिर बढ़े फ़ासले...
कभी तुम पीछे हटे,
कभी ! हम आगे बढ़े,
एक-एक कदम से बने थे,
फ़ासले....
मीलों पीछे आकर,
क्या ? मिट पाते ये
फ़ासले....
अब तो बढ़ना होगा ,
हमको...
एक कदम तुम ,और
एक कदम हम...
वेदांश......
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी के सफ़र में ,
ख़्वाबों की तामीर में,
रिश्तों की रुसवाई में,
और
अपनों के बीच तन्हाई में,
खुले मुंह दफ़न होती हैं ,
कई सिसकियाँ ....
सन्नाटों के इस शहर में ,
उठती है अक्सर एक आवाज़,
जिसे कायनात भी अपने में समेट न सकी,
पल-पल बनते औ मिटते निशां.....
हर घड़ी खत्म होता जहाँ का वज़ूद ,
और ख़ुद को पते हम एक नए जहाँ में ,
कभी उम्मीद और नाउमीद से मोलभाव करते ,
कभी ख़ुद का वज़ूद तलाशते .....
वेदांश....
ख़्वाबों की तामीर में,
रिश्तों की रुसवाई में,
और
अपनों के बीच तन्हाई में,
खुले मुंह दफ़न होती हैं ,
कई सिसकियाँ ....
सन्नाटों के इस शहर में ,
उठती है अक्सर एक आवाज़,
जिसे कायनात भी अपने में समेट न सकी,
पल-पल बनते औ मिटते निशां.....
हर घड़ी खत्म होता जहाँ का वज़ूद ,
और ख़ुद को पते हम एक नए जहाँ में ,
कभी उम्मीद और नाउमीद से मोलभाव करते ,
कभी ख़ुद का वज़ूद तलाशते .....
वेदांश....
वज़ूद
ज़बान से ज़ख्म खाए हैं,
हमने...
खंज़र क्या बोल पायेगा...
हर नज़र ने जलाया है ,
रोशन आग...
क्या ? बुझा पायेगी,
यादों के सैलाब उमड़ते हैं ,
इस दिल में ...
क्या आंधी , क्या तूफ़ान..
वज़ूद मिरा मिटा पाएंगे ....
वेदांश....
हमने...
खंज़र क्या बोल पायेगा...
हर नज़र ने जलाया है ,
रोशन आग...
क्या ? बुझा पायेगी,
यादों के सैलाब उमड़ते हैं ,
इस दिल में ...
क्या आंधी , क्या तूफ़ान..
वज़ूद मिरा मिटा पाएंगे ....
वेदांश....
सौदे...
यहाँ-वहां , इधर-उधर...
है परेशानी का सबब ,
ज़िन्दगी के इस सफ़र में ,
ख़्वाबों की तामीर को ,
तराज़ू में तोलकर...
हर कोई कर रहा है ,
सौदे...
मैंने भी किये,
और
कर रहा हूँ ...
अल्फाज़ों को बेच,
खुशियाँ खरीदी ....
वहीं कुछ ,
नगमे भी खरीदे,
ग़मों को बेच....
वेदांश......
चीखो.......चिल्लाओ...............
आगे निकल आये हम ...
कितने ?आगे निकल आये हम ,
रिश्तों को छोड़ , दोस्ती भूल ,
और कुछ वफ़ाओं को तोड़...
कुछ कर गुज़रने की चाह में ,
क्या ? पीछे छोड़ आये हम...
कितने ? आगे निकल आये हम ...
बची यादों को समेटने का ,
वक़्त भी तो न निकाल पाए हम ,
आंसू सूखे आँखों के ,लफ्ज़ भी
ज़बान में सिमट गए ...
काजल की कोठरी से भी ,
कोरे ही निकाल आए हम ...
वक़्त को कहाँ ? पीछे छोड़ आये हम ........
वेदांश....
रिश्तों को छोड़ , दोस्ती भूल ,
और कुछ वफ़ाओं को तोड़...
कुछ कर गुज़रने की चाह में ,
क्या ? पीछे छोड़ आये हम...
कितने ? आगे निकल आये हम ...
बची यादों को समेटने का ,
वक़्त भी तो न निकाल पाए हम ,
आंसू सूखे आँखों के ,लफ्ज़ भी
ज़बान में सिमट गए ...
काजल की कोठरी से भी ,
कोरे ही निकाल आए हम ...
वक़्त को कहाँ ? पीछे छोड़ आये हम ........
वेदांश....
मानव को कचोटती!
दिगदिगंत तक गूंजती,
एक आवाज़....
आवाज़,आदेश या
अनुगूँज...
अंतरिक्ष से आती,
अनन्त में समा जाती..
कोई ? समझ न पाता,
क्या ?
कोई ? समझ न
पाया,नहीं !
समझ गए वे,
जिनमे थी ,
समझ...
समझ,उतावलापन
या फिर ,
पागलपन....
समझ गए थे,
आइन्स्टीन,विवेकानंद और
अरस्तु ...
और
रची एक नयी श्रृष्टि ,
जिसने दी हमे ,
दृष्टि ...
समझ जाते गर हम भी ,
तो....
हमारे हिस्से की आवाज़ भी,
यूँ ही...न समा जाती अनन्त में ...
और
हम भी होते आज,
मार्ग प्रणेता ....
वेदांश.....
दिगदिगंत तक गूंजती,
एक आवाज़....
आवाज़,आदेश या
अनुगूँज...
अंतरिक्ष से आती,
अनन्त में समा जाती..
कोई ? समझ न पाता,
क्या ?
कोई ? समझ न
पाया,नहीं !
समझ गए वे,
जिनमे थी ,
समझ...
समझ,उतावलापन
या फिर ,
पागलपन....
समझ गए थे,
आइन्स्टीन,विवेकानंद और
अरस्तु ...
और
रची एक नयी श्रृष्टि ,
जिसने दी हमे ,
दृष्टि ...
समझ जाते गर हम भी ,
तो....
हमारे हिस्से की आवाज़ भी,
यूँ ही...न समा जाती अनन्त में ...
और
हम भी होते आज,
मार्ग प्रणेता ....
वेदांश.....
नमन है ... दिव्यरूप,जगत्व्यापी माँ..

जिसमे सिमटा है पूरा जहाँ,
इस शब्द जैसा और.. कोई ?कहाँ?
प्यार है इसका चांदनी रात ,
लगता न ग्रहण उस प्यार में,
रहती हमेशा पूनम सी धवल छाया ,
दूधिया ज्ञान की रौशनी में ,इसके
बनती है एक इंसानी काया ,

रहता जिसका आशीर्वाद ,
बनकर हमारा साया ,
गंगा से भी निर्मल,पावन है,
जिसका आंचल.....
नयनों से बरसती है ममता,
क्या इंसान,क्या पशु...
सबका मन उसी में रमता,
है क्या?कोई भाग्यशाली हमसा ....
वेदांश...
सुकून ...........
नहीं रहा अब,वो सुकून ,
ज़ख्मों को कुरेदने में ,
यादों को सहेजने में,
टूटे शीशे जोड़ने में,
कुछ शर्तों को तोड़ने में,
और,
अपने साये को पीछे छोड़ने में...
हाँ गुरेज़ नहीं मुझे कहने से ,
ज़िन्दगी थी मेरी भी,
जैसे बिन पानी मीन,
पर,
कहने को हम भी आबाद थे ,इतने
न बर्बाद थे...
कुछ बेफ़िक्र से ,कुछ आज़ाद से ,
बंज़र टीले के मगरूर बादशाह से,
रोज़ो -शब्, शामो-सहर ..
रहती है एक ही ख़लिश दिल में,
काश न सुन पाते ,दिल की आवाज़....
वेदांश .....
ज़ख्मों को कुरेदने में ,
यादों को सहेजने में,
टूटे शीशे जोड़ने में,
कुछ शर्तों को तोड़ने में,
और,
अपने साये को पीछे छोड़ने में...
हाँ गुरेज़ नहीं मुझे कहने से ,
ज़िन्दगी थी मेरी भी,
जैसे बिन पानी मीन,
पर,
कहने को हम भी आबाद थे ,इतने
न बर्बाद थे...
कुछ बेफ़िक्र से ,कुछ आज़ाद से ,
बंज़र टीले के मगरूर बादशाह से,
रोज़ो -शब्, शामो-सहर ..
रहती है एक ही ख़लिश दिल में,
काश न सुन पाते ,दिल की आवाज़....
वेदांश .....
फ़रवरी 14, 2010
एक प्रेमी की डायरी

मुझे लगता है तुम मेरे पास ही हो ,पर जब ऑंखें खोलता हूँ तो तुम कहाँ चली जाती हो ? शायद इसलिए की इश्क का पहला कलाम ही इबादत से शुरू होता है ,और इबादत की रह में मुश्किलें तो आती ही हैं ,..तभी मैं सोचता हूँ जब हम मिले ही अल्लाह के फज़ल से हैं तो उसे पाने में इतनी इबादत क्यों ?सवाल यहाँ इबादत का नहीं है ,सवाल है यहाँ न होते हुए भी तुम्हारी मौजूदगी से आखिर क्यों तुम मेरे पास नहीं हो ?इसी सवाल ने मेरी पूरी रत जायर कर दी,तभी कही से एक तस्वीर उड़कर आयी मैं कुछ देर सोचता रहा तभी उस तस्वीर से तुम्हारा अक्स बोल पड़ा 'अल्लाह किसी बन्दे को ये दिन तभी दिखाता है,जब वो तुम्हे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाये ,आखिर अल्लाह का नूर हमारे इश्क के चेहरे से ही तो झलकता है ,जो कभी आपकी यादों को हमसे जुदा नहीं होने देता ....
वेदांश
एक ख़त इश्क के नाम
अपने साये से चौंक जाते हैं,
उम्र गुज़री है इस कदर तनहा....
तभी आयी तुम ................
कुछ सिमटी सी,कुछ सिसकी सी, आखों में अल्लाह का नूर,होठो में पैगम्बर सी मिठास और जिस्म जैसे औलिया के किये हों सजदे.....तभी हो गई जिंदगी पूरी. या परवरदिगार ये ख्वाब है या हकीकत सोचता रहता हूँ आज तक ..
तभी आयी एक इंसानी आवाज़ जैसे बरपा हो कहर ...वो तो इंसान था ही नहीं,शायद था,इंसानी हैवान जो जनता था सिर्फ एक खुदा को और सिर्फ खुदा अल्फाज़ को ही,उपरवाला तो उसके लिए सिर्फ एक लफ्ज़ था शायद वो भी नहीं....
कह रहा था, 'रहेगा बीच हमेशा एक फासला',मैं हँसा और बोल ही पड़ा ''लगता है अभी इश्क के इम्तिहान और भी बाकी हैं''मैंने कहा इश्क खुदा की ही तो देन है,इश्क खुदा और खुदा ही तो इश्क है,उसने कहा तौबा कर इन नापाक इरादों से मैंने कहा गर इश्क नापाक तो खुदा क्या ?वो बोला खुदा खुदा है और इश्क हुह..... कुछ भी तो नहीं ..........तभी में बोल पड़ा अरे बेवकूफ इश्क ही तो खुदाई है और खुदाई है ही खुदा की नियामत तो खुदा कैसे हो सकेगा मुझसे अलग ....
आखिर मैं भी तो था,
अपने सजदों का पक्का नमाज़ी...
वेदांश
फ़रवरी 11, 2010
नियति
भड़ास blog: मृत्यु एक मार्गदर्शक
मुझे लगता है ये जीवन और मरण का जो सत्य है ,वो कही न कही प्रत्त्यक्ष या परोक्ष्य रूप से एक ही तत्त्व से जुड़ा है,जो हमेशा एक ही रहता है, जिसे हम ब्रहम या आत्मा नाम से जानते है.हो सकता है एक सुपर कंप्यूटर इन सबका हिसाब रखता हो कुछ सूत्र पहले से फीड किए गए हों जिनके हिसाब से आने वाला जन्म सुनिश्चित होता हो,तभी तो कई बार हम भी कहते है ये ऊपर वाले ने क्या गलती कर दी ये इसलिए होता है ,क्यों की कई बार एक कुछ सवाल एक पूर्व लिखित सूत्र से नहीं हल हो सकते,उस सुपर कंप्यूटर को ही हम चित्त्रगुप्प्त कह सकते है और जो फीडबैक आता हो ये ही हो हमारी नियति .........

वेदांश
फ़रवरी 04, 2010
.....सन्नाटा !
सन्नाटा है... सन्नाटा है...
कैसा?
ये सन्नाटा है....
इस शहर के लोगों का,
क्यों ?
आपस में टूटा नाता है ..
कैसा?ये सन्नाटा है ...
रेत पकड़ने पर,हाथ किसके आती है,
छोड़ने पर थोड़ी तो शेष रह जाती है ..
पर फिर भी ये राग,
नहीं किसी को भाता है,
शायद!तभी शहर में इतना फैला सन्नाटा है.
मैखाने में तो हर कोई पैमाने छलकाता है ,
पर इस दुनिया में तो पैमाना ख़ाली ही रह जाता है ...
सन्नाटा है भाई सन्नाटा है......
चेहरों पे चेहरे,नकाब पे नकाब ...
उन रकीबों का क्या ?
वो तो हैं बेताब ................
वेदांश
कैसा?
ये सन्नाटा है....
इस शहर के लोगों का,
क्यों ?
आपस में टूटा नाता है ..
कैसा?ये सन्नाटा है ...
रेत पकड़ने पर,हाथ किसके आती है,

पर फिर भी ये राग,
नहीं किसी को भाता है,
शायद!तभी शहर में इतना फैला सन्नाटा है.
मैखाने में तो हर कोई पैमाने छलकाता है ,
पर इस दुनिया में तो पैमाना ख़ाली ही रह जाता है ...
सन्नाटा है भाई सन्नाटा है......
चेहरों पे चेहरे,नकाब पे नकाब ...
उन रकीबों का क्या ?
वो तो हैं बेताब ................
वेदांश
क्यों....?
ज़िन्दगी गर कोई जीता है,
फिर क्यों वो पीता है....
कभी गम को,कभी अश्कों को ...
क्यों वो पैमानों में रखता है ,
छलककर जाम भी तो बहुत कुछ,
कहता है...
ख्वाबों कि इस दुनिया रहकर ,
कब, कोई कुछ होता है ......
हाँ लेकिन इस दुनिया में,
अँधा ही कहाँ अँधा होता है ...
बदलते मुकाम रुकी ज़िन्दगी,
यही तो है अपनी पेशगी ...
आईने से उठता धुआं ,
खुद से मांगता पनाह ...
दर-ब-दर ठोकरें खाता,
अपने अक्स का कायल इन्सान ......
वेदांश
फिर क्यों वो पीता है....
कभी गम को,कभी अश्कों को ...
क्यों वो पैमानों में रखता है ,
कहता है...
ख्वाबों कि इस दुनिया रहकर ,
कब, कोई कुछ होता है ......
हाँ लेकिन इस दुनिया में,
अँधा ही कहाँ अँधा होता है ...
बदलते मुकाम रुकी ज़िन्दगी,
यही तो है अपनी पेशगी ...
आईने से उठता धुआं ,
खुद से मांगता पनाह ...
दर-ब-दर ठोकरें खाता,
अपने अक्स का कायल इन्सान ......
वेदांश
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