फ़रवरी 14, 2010

एक प्रेमी की डायरी

      इश्क के समुन्दर में गोते लगाते हुए, मैं याद कर रहा हूँ उस दिन को जब मैंने तुम्हे देखा था ...वो मंज़र धीरे-धीरे मेरे पूरे जिस्म में ,मेरे दिमाग में और हाँ मेरे दिल में भी बसता जा रहा है ...तुम्हारी वो हंसी,तुम्हारे लबों से छूता हर एक अल्फाज़ मेरे कानों में गूंज रहा है जो उस वक्त चाहकर या न चाहकर अनायास ही फूटे थे....वो हर अलफ़ाज़,वो हंसी अब तब्ब्दील होकर मेरी आँखों के सामने घूम रहे हैं .....
     मुझे लगता है तुम मेरे पास ही हो ,पर जब ऑंखें खोलता हूँ तो तुम कहाँ चली जाती हो ? शायद इसलिए की इश्क का पहला कलाम ही इबादत से शुरू होता है ,और इबादत की रह में मुश्किलें तो आती ही हैं ,..तभी मैं सोचता हूँ जब हम मिले ही अल्लाह के फज़ल से हैं तो उसे पाने में इतनी इबादत क्यों ?सवाल यहाँ इबादत का नहीं है ,सवाल है यहाँ न होते हुए भी तुम्हारी मौजूदगी से आखिर क्यों तुम मेरे पास नहीं हो ?इसी सवाल ने मेरी पूरी रत जायर कर दी,तभी कही से एक तस्वीर उड़कर आयी मैं कुछ देर सोचता रहा तभी उस तस्वीर से तुम्हारा अक्स बोल पड़ा 'अल्लाह किसी बन्दे को ये दिन तभी दिखाता है,जब वो तुम्हे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाये ,आखिर अल्लाह का नूर हमारे इश्क के चेहरे से ही तो झलकता है ,जो कभी आपकी यादों को हमसे जुदा नहीं होने देता ....      
                                                                                                                      
                                                                                                               वेदांश 

एक ख़त इश्क के नाम

अपने साये से चौंक जाते हैं,
उम्र गुज़री है इस कदर तनहा....
    ये एक शेर नहीं ख्याल नहीं,जिंदगानी थी अपनी.....
तभी आयी तुम ................
  कुछ सिमटी सी,कुछ सिसकी सी, आखों में अल्लाह का नूर,होठो में पैगम्बर सी मिठास और जिस्म जैसे औलिया के किये हों सजदे.....तभी हो गई जिंदगी पूरी. या परवरदिगार ये ख्वाब है या हकीकत सोचता रहता हूँ आज तक ..
  तभी आयी एक इंसानी आवाज़ जैसे बरपा हो कहर ...वो तो इंसान था ही नहीं,शायद था,इंसानी हैवान जो जनता था सिर्फ एक खुदा को और सिर्फ खुदा अल्फाज़ को ही,उपरवाला तो उसके लिए सिर्फ एक लफ्ज़ था शायद वो भी नहीं....
  कह रहा था, 'रहेगा बीच हमेशा एक फासला',मैं हँसा और बोल ही पड़ा ''लगता है अभी इश्क के इम्तिहान और भी बाकी हैं''मैंने कहा इश्क खुदा की ही तो देन है,इश्क खुदा और खुदा ही तो इश्क है,उसने कहा तौबा कर इन नापाक इरादों से मैंने कहा गर इश्क नापाक तो खुदा क्या ?वो बोला खुदा खुदा है और इश्क हुह..... कुछ भी तो नहीं ..........तभी में बोल पड़ा अरे बेवकूफ इश्क ही तो खुदाई है और खुदाई है ही खुदा की नियामत तो खुदा कैसे हो सकेगा मुझसे अलग ....
   आखिर मैं भी तो था,
अपने सजदों का पक्का नमाज़ी...  
                                                                                                      


  वेदांश