मई 29, 2010

दरख़्त

भीड़ में बैठा अक्सर देखा  करता हूँ ......
हाड़-मांस के कुछ दरख्तों को,
सूखे से,सीना ताने..
अपनों के बीच बेगाने से,
लहू कबका सूख चुका है,
बचे हैं सिर्फ कुछ..
निशां...
 सुर्ख से,
क्या ये ???
साँस लेते होंगे....
हाँ ,दिल तो है,
पर धड़कन कहीं गम हो चुकी है,
स्याह,अँधेरी रात कि गहराईयों में ,
इन दरख्तों के वीरान जंगल से..
 जो भी गुज़रता है,
 वो तब्ब्दील हो जाता है
इन  दरख्तों में ...






          वेदांश...... 







मार्च 11, 2010

अब वहां सिर्फ मकान हैं जिनमें.........

     उनको मैं अभी तक नहीं भूला,फिर भी चेहरे की कुछ धुंधली यादें ही शेष हैं,चेहरे का रेखाचित्र मैं न तब खीच सकता था,और न तो अब, उनकी पहचान मेरे लिए थी सिर्फ नाना जी नाम से,वो सबके नहीं पर मेरे तो नाना ही थे यानि की मेरी पूज्य माँ के पूज्य पिता श्री....
   दिमाग के किसी कोने में अवचेतन मस्तिष्क को काफी कुरेदने के बाद भी नाना जी की यादें सिमटी हैं, बस उनके  चेहरे की झुरियों से,उनका अक्स झलकता था उनके चश्मे से,और उनका वो खांसना  जो ख़ुद में एक सम्पूर्णता समेटे हुए था,मेरे लिए तो नाना जी की इतनी यादें ही हैं और यही उनकी पहचान भी....
   माँ बताती हैं जब नाना जी आते थे,तो सड़क से ही उनके खांसने  की आवाज़ से ही नानी चाय बनाने चूल्हे में रख देती थीं और घर के सरे बच्चे जस के तस चेतनाशुन्य हो जाते थे,किसी की खांसी में छुपी ख़ामोशी का ऐसा प्रभाव मैंने  आजतक नहीं देखा,कहने को बच्चे अपनी माँ के मायके को नानी का घर कहते हैं,पर हमारे लिए तो वो था सिर्फ नाना जी का घर,मुझे लगता है वक़्त कभी नहीं बदलता... हाँ एक छोटा  सा फ़र्क ज़रूर आ जाता है जो  कई बार फासले बनाता  जाता है,नाना जी का घर तब ऐसा लगता था मानो अपने आप में पूरा शहर हो,उस घर का एक चक्कर लगाने में हमे मीलों का सफ़र तय करना पड़ रहा है लेकिन ये बाल मन की उद्विग्नता ही तो है,की हर छोर पे आने के बाद प्रतीत होता था शायद कुछ जगह और भी रह गए हैं,और हम बच्चे औघड़ों से डरने के बावजूद ख़ुद औघड़ बने फिरते थे, जिसे रास्ते  का तो पाता नहीं है परन्तु परमानंद की प्राप्ति हो रही है..घर के सामने एक कनेर का विशाल पेड़ था,जो सुबह सिर्फ  नानी को पूजा के फूल ही नहीं समर्पित करता था वरन हम बच्चों के लिए तो वो एक समर्पित पिता के सामान वात्सल्य रुपी छाव लुटाता था और  वहीं एक सखा की भांति हर खेल में,ईर्ष्या के भाव में,क्रोध में हमेशा हमारा साथ देता था. आज मुझे लगता है जरूर किसी जन्म में वो पेड़ चन्द्रमा होगा ,तभी तो वो सारी कलाएं उसमे विद्यमान थीं...
    घर के ठीक सामने तुलसी का एक चबूतरा था,जो हमारे लिए सिर्फ नानी का था और यही एकलौती ऐसी चीज़ थी जिसे हम नानी की प्रोपर्टी समझते थे,उनमे हमेशा एपड डाले जाते थे, हमें उनदिनों एक खास दिन एक खजाने की बड़ी उत्सुकता से प्रतिक्ष्या  रहती थी,वो खज़ाना था,पूजा के बाद मिलने वाली चुंगी और लड़की के बच्चे होने के नाते हमे इसमें वरीयता दी जाती थी,जो की उस समय हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात होती थी,एक स्थान था जहाँ जाने की हमें तीव्र इच्छा रहती थी,वो था नाना जी के खेत और यही एक सीमा थी,जहाँ से अन्दर जाना हमारे लिए किसी देश की सीमा लांघने से भी कठिन था, उस सीमा पर डर था,न तो किसी बन्दूक का,न किसी तोप का,वो था सिर्फ नाना जी की खासी का, वहां हमारे लिए दुनिया भर की चीज़ें थी जो भले ही और किसी के लिए बेमूल्य हो हमारे लिए तो अमूल्य थी,नारंगी का पेड़,मौसमी का पेड़, सेब, आडू,पुलम ,खोखो और भी जाने क्या-क्या, जो हमें इन्द्रधनुष के सातों रंगों और कल्प्वृक्ष्य से अधिक आकर्षक और स्वादिष्ट लगते थे ...वहीं खेतों की मेड़ों में सबसे नीचे एक बांस का पेड़ भी था,क्या तो तुलसीदास को प्रभुदर्शन की और क्या नील-आर्म-स्ट्रोंग को चाँद में पैर रखने की जल्दी होगी,जितनी हमें वहां जाने की होती,मौका मिला नहीं की सरे बच्चे राम-रावण की सेना बनाने पहुचे,सभी कहा करते थे की वहां साँप रहते हैं ,पर हम भी तो  आखिर जन्मेजय थे,तो क्या साँप क्या नाग,सबको भस्म तो हमारे आनंद की ज्वाला में ही होना था . घर की दूसरी तरफ गोठ के बाहर तो हमारे लिए एक अलग ही दुनिया थी, अकेले जाने की तो हिम्मत तो थी नहीं लेकिन जहाँ २-३ मिले नहीं वहीं रम गए ...
      समय तो अधिक नहीं बीता लेकिन कुछ चीज़ें बदल गई  हैं,हम थोरे से बड़े हो गए हैं लेकिन अब वो घर बहुत ही छोटा हो गया है, और हाँ एक बात और अब वहां न नाना जी हैं,और न तो नाना जी का घर,अब वहां सिर्फ मकान हैं जिनमें मामा लोग रहते हैं...

फ़रवरी 17, 2010

पाश-पाश हुआ मकां मिरा,


क़ुबूल कर ली जब,


खुदा ने दुआ घर की सलामती की ....






  वेदांश.... 

फ़रवरी 16, 2010

क्या तुमने ? क्या हमने....

शोर-शराबे को भूलकर ,
अपने को...
तक़दीर के भरोसे छोड़कर,
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
ज़मीन पर लक्ष्मण रेखा खींचकर ,
दुनिया को टुकड़ों में बांटकर ...
क्या...
तुमने पाया ?
क्या...
हमने खोया ?
इन्द्रधनुष को सात रंगों,
किसने बांटा ?  
काले-सफ़ेद को दुनिया में,
क्यों पाटा ?
ये तेरा ,ये मेरा...
किसने बुना ये ताना-बाना..............................


  वेदांश.....

फ़ासले.....

ज़िन्दगी को बाज़ी समझकर,
सबने किये सौदे....
कुछ तुमने , कुछ हमने,
फ़र्क क्या था ?
वक़्त बदला था, या
बढे थे फ़ासले ?
वक़्त तो वहीं है...
बस,
बदले हम और तुम,
फिर बढ़े फ़ासले...  
कभी तुम पीछे हटे,
कभी ! हम आगे बढ़े, 
एक-एक कदम से बने थे,
फ़ासले....
मीलों पीछे आकर,
क्या ? मिट पाते ये
फ़ासले....
अब तो बढ़ना होगा ,
हमको...
एक कदम तुम ,और 
एक कदम हम...  


   वेदांश......  

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी के सफ़र में  ,
ख़्वाबों की तामीर में,
रिश्तों की रुसवाई में,
और
अपनों के बीच तन्हाई में,
खुले मुंह दफ़न होती हैं ,
कई सिसकियाँ ....
सन्नाटों के इस शहर में ,
उठती है अक्सर एक आवाज़,
जिसे कायनात भी अपने में समेट न सकी,
पल-पल बनते औ मिटते निशां.....
हर घड़ी  खत्म होता जहाँ का वज़ूद  ,
और ख़ुद को पते हम एक नए जहाँ में ,
कभी उम्मीद और नाउमीद  से मोलभाव करते ,
कभी ख़ुद का वज़ूद तलाशते .....      



 वेदांश.... 

वज़ूद

ज़बान से ज़ख्म खाए हैं,
हमने...
खंज़र क्या बोल पायेगा...
हर नज़र ने जलाया है ,
रोशन आग...
क्या ? बुझा पायेगी,
यादों के सैलाब उमड़ते हैं ,
इस दिल में ...
क्या आंधी , क्या तूफ़ान..
वज़ूद मिरा मिटा पाएंगे ....  




 वेदांश....        

सौदे...


यहाँ-वहां , इधर-उधर... 


है परेशानी का सबब ,


ज़िन्दगी के इस सफ़र में ,


ख़्वाबों  की तामीर को ,
तराज़ू में तोलकर...
हर कोई कर रहा है ,


सौदे...


मैंने भी किये,


और 


कर रहा हूँ ...


अल्फाज़ों को बेच,


खुशियाँ खरीदी ....


वहीं कुछ ,


नगमे भी खरीदे,


ग़मों को बेच....    








 वेदांश......

चीखो.......चिल्लाओ...............

चीखो और चिल्लाओ ,


दिल के दरवाज़ों को खोल दो,


दिमाग को ख़ाली करो,


इसकी दीवारों पर करो आज,


चित्रकारी .........


ग़मों की कूची को,


खुशियों के रंग में,


डुबोकर .........


आज बनाओ कुछ ऐसा....


कोई न बना सके,


फिर कुछ वैसा......




  वेदांश........ 

आगे निकल आये हम ...

कितने ?आगे निकल आये हम ,


रिश्तों को छोड़ , दोस्ती भूल ,


और कुछ वफ़ाओं को तोड़...


कुछ कर गुज़रने की चाह में ,


क्या ? पीछे छोड़ आये हम...


कितने ? आगे निकल आये हम ...


बची यादों को समेटने का ,


वक़्त भी तो न निकाल पाए हम ,


आंसू सूखे आँखों के ,लफ्ज़ भी 


ज़बान में सिमट गए ...


काजल की कोठरी से भी ,


कोरे ही निकाल आए हम ...


वक़्त को कहाँ ? पीछे छोड़ आये हम ........



  वेदांश....
मानव को कचोटती!


दिगदिगंत तक गूंजती,


एक आवाज़....


आवाज़,आदेश या


अनुगूँज...


अंतरिक्ष से आती,


अनन्त में समा जाती..


कोई ? समझ न पाता,
क्या ?
कोई ? समझ न
पाया,नहीं ! 
समझ गए वे, 
जिनमे थी ,
समझ...
समझ,उतावलापन 
या फिर ,
पागलपन....




समझ गए थे,
आइन्स्टीन,विवेकानंद और 
अरस्तु ...
और 
रची एक नयी श्रृष्टि ,
जिसने दी हमे ,
दृष्टि ...
समझ जाते गर हम भी ,
तो....
हमारे हिस्से की आवाज़ भी,
यूँ ही...न समा जाती अनन्त में ...
और 
हम भी होते आज,
मार्ग प्रणेता .... 






 वेदांश.....  

नमन है ... दिव्यरूप,जगत्व्यापी माँ..

जिसको हम कहते हैं माँ...


जिसमे सिमटा है पूरा जहाँ,


इस शब्द जैसा और.. कोई ?कहाँ?


प्यार है इसका चांदनी रात ,


लगता न ग्रहण उस प्यार में,


रहती हमेशा पूनम सी धवल छाया ,


दूधिया ज्ञान की रौशनी में ,इसके


बनती है एक इंसानी काया ,


रहता जिसका आशीर्वाद ,


बनकर हमारा साया ,


गंगा से भी निर्मल,पावन है,


 जिसका आंचल.....


नयनों से बरसती है ममता,


क्या इंसान,क्या पशु...


सबका मन उसी में रमता,


है क्या?कोई भाग्यशाली हमसा ....





वेदांश...

सुकून ...........

 नहीं रहा अब,वो सुकून ,


ज़ख्मों को कुरेदने में ,


यादों को सहेजने में,


टूटे शीशे जोड़ने में,


कुछ शर्तों को तोड़ने में,


 और,


अपने साये को पीछे छोड़ने में...



हाँ गुरेज़ नहीं मुझे कहने से ,


ज़िन्दगी थी मेरी भी,


 जैसे बिन पानी मीन,


पर,


कहने को हम भी आबाद थे ,इतने


न बर्बाद थे...


कुछ बेफ़िक्र से ,कुछ आज़ाद से ,


बंज़र टीले के मगरूर बादशाह से,


 रोज़ो -शब्, शामो-सहर ..


रहती है एक ही ख़लिश दिल में,


काश न सुन पाते ,दिल की आवाज़....

  


 वेदांश .....

फ़रवरी 14, 2010

एक प्रेमी की डायरी

      इश्क के समुन्दर में गोते लगाते हुए, मैं याद कर रहा हूँ उस दिन को जब मैंने तुम्हे देखा था ...वो मंज़र धीरे-धीरे मेरे पूरे जिस्म में ,मेरे दिमाग में और हाँ मेरे दिल में भी बसता जा रहा है ...तुम्हारी वो हंसी,तुम्हारे लबों से छूता हर एक अल्फाज़ मेरे कानों में गूंज रहा है जो उस वक्त चाहकर या न चाहकर अनायास ही फूटे थे....वो हर अलफ़ाज़,वो हंसी अब तब्ब्दील होकर मेरी आँखों के सामने घूम रहे हैं .....
     मुझे लगता है तुम मेरे पास ही हो ,पर जब ऑंखें खोलता हूँ तो तुम कहाँ चली जाती हो ? शायद इसलिए की इश्क का पहला कलाम ही इबादत से शुरू होता है ,और इबादत की रह में मुश्किलें तो आती ही हैं ,..तभी मैं सोचता हूँ जब हम मिले ही अल्लाह के फज़ल से हैं तो उसे पाने में इतनी इबादत क्यों ?सवाल यहाँ इबादत का नहीं है ,सवाल है यहाँ न होते हुए भी तुम्हारी मौजूदगी से आखिर क्यों तुम मेरे पास नहीं हो ?इसी सवाल ने मेरी पूरी रत जायर कर दी,तभी कही से एक तस्वीर उड़कर आयी मैं कुछ देर सोचता रहा तभी उस तस्वीर से तुम्हारा अक्स बोल पड़ा 'अल्लाह किसी बन्दे को ये दिन तभी दिखाता है,जब वो तुम्हे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाये ,आखिर अल्लाह का नूर हमारे इश्क के चेहरे से ही तो झलकता है ,जो कभी आपकी यादों को हमसे जुदा नहीं होने देता ....      
                                                                                                                      
                                                                                                               वेदांश 

एक ख़त इश्क के नाम

अपने साये से चौंक जाते हैं,
उम्र गुज़री है इस कदर तनहा....
    ये एक शेर नहीं ख्याल नहीं,जिंदगानी थी अपनी.....
तभी आयी तुम ................
  कुछ सिमटी सी,कुछ सिसकी सी, आखों में अल्लाह का नूर,होठो में पैगम्बर सी मिठास और जिस्म जैसे औलिया के किये हों सजदे.....तभी हो गई जिंदगी पूरी. या परवरदिगार ये ख्वाब है या हकीकत सोचता रहता हूँ आज तक ..
  तभी आयी एक इंसानी आवाज़ जैसे बरपा हो कहर ...वो तो इंसान था ही नहीं,शायद था,इंसानी हैवान जो जनता था सिर्फ एक खुदा को और सिर्फ खुदा अल्फाज़ को ही,उपरवाला तो उसके लिए सिर्फ एक लफ्ज़ था शायद वो भी नहीं....
  कह रहा था, 'रहेगा बीच हमेशा एक फासला',मैं हँसा और बोल ही पड़ा ''लगता है अभी इश्क के इम्तिहान और भी बाकी हैं''मैंने कहा इश्क खुदा की ही तो देन है,इश्क खुदा और खुदा ही तो इश्क है,उसने कहा तौबा कर इन नापाक इरादों से मैंने कहा गर इश्क नापाक तो खुदा क्या ?वो बोला खुदा खुदा है और इश्क हुह..... कुछ भी तो नहीं ..........तभी में बोल पड़ा अरे बेवकूफ इश्क ही तो खुदाई है और खुदाई है ही खुदा की नियामत तो खुदा कैसे हो सकेगा मुझसे अलग ....
   आखिर मैं भी तो था,
अपने सजदों का पक्का नमाज़ी...  
                                                                                                      


  वेदांश    
                                                                   



  

फ़रवरी 11, 2010

नियति

भड़ास blog: मृत्यु एक मार्गदर्शक
मुझे लगता है ये जीवन और मरण का जो सत्य है ,वो कही न कही प्रत्त्यक्ष या परोक्ष्य रूप से एक ही तत्त्व से जुड़ा है,जो हमेशा एक ही रहता है, जिसे हम ब्रहम या आत्मा नाम से जानते है.हो सकता है एक सुपर कंप्यूटर इन सबका हिसाब रखता हो कुछ सूत्र पहले से फीड किए गए हों जिनके हिसाब से आने वाला जन्म सुनिश्चित होता हो,तभी तो कई बार हम भी कहते है ये ऊपर वाले ने क्या गलती कर दी ये इसलिए होता है ,क्यों की कई बार एक कुछ सवाल एक पूर्व लिखित सूत्र से नहीं हल हो सकते,उस सुपर कंप्यूटर को ही हम चित्त्रगुप्प्त कह सकते है और जो फीडबैक आता हो ये ही हो हमारी नियति .........           


   वेदांश 

फ़रवरी 04, 2010

.....सन्नाटा !

सन्नाटा है... सन्नाटा है...
कैसा?
ये सन्नाटा है....
इस शहर के लोगों का,
क्यों ?
आपस में टूटा नाता है ..
कैसा?ये सन्नाटा है ...
रेत पकड़ने पर,हाथ किसके आती है,
छोड़ने पर थोड़ी तो शेष रह जाती है ..
पर फिर भी ये राग,
नहीं किसी को भाता है,
शायद!तभी शहर में इतना फैला सन्नाटा है.
मैखाने में तो हर कोई पैमाने छलकाता है ,
पर इस दुनिया में तो पैमाना ख़ाली ही रह जाता है ...
सन्नाटा है भाई सन्नाटा है......
चेहरों पे चेहरे,नकाब पे नकाब ...
उन रकीबों का क्या ?
वो तो हैं बेताब ................




 वेदांश 

क्यों....?

ज़िन्दगी गर कोई जीता है,
फिर क्यों वो पीता है....
कभी गम को,कभी अश्कों को ... 
क्यों वो पैमानों में रखता है ,
छलककर  जाम भी तो बहुत कुछ,
कहता है...
ख्वाबों कि इस दुनिया रहकर ,
कब, कोई कुछ होता है ......
हाँ लेकिन इस दुनिया में,
अँधा ही कहाँ अँधा होता है ...
बदलते मुकाम  रुकी ज़िन्दगी,
यही तो है अपनी पेशगी ...
आईने से उठता धुआं ,
खुद से मांगता पनाह ...
दर-ब-दर ठोकरें खाता,
अपने अक्स का कायल इन्सान ......




 वेदांश 

जनवरी 24, 2010

अल्फाज़

 तकदीर को छोड़कर,
चाँद यादों को जोड़कर. 
आओ करें कुछ सौदे.
अल्फाजों को बेच खुशियाँ खरीदें,
ग़मों के बदले अल्फाज़ बटोरें,
 कुछ सौदे आज पूरे करें ......
चौपड़ में पासे फेंककर.
कुछ बज़िंयाँ और लगायें.
दुर्योधन को डरा और
शकुनी को हरा........
   कालजई ग्रंथों में अमर हो जायं .........  








    वेदांश 
    

पैबंद

        दिलोदिमाग में जब छिड़ी जंग,
किसी ने दिल का साथ दिया,
 तो किसी ने दिमाग का.......
इस दिलोदिमाग कि बाज़ी में ,
तू जीतेगा या मैं !
खुद को मैंने टटोला ,कभी दिल को खोला,
तो कभी दिमाग को खंगाला,फिर कुछ
बडबडा कर बोला ................
कहाँ है वजूद मेरा????
वो तंग गलियाँ यादों की,
        वो बीती घड़ियाँ उन बातों की,और
        वो कहानी उन उन सर्द,स्याह रातों की,
        गुजरकर भी न सोचा ,कभी-
        -वो गलियां तो तंग हैं,.......
        आज लगता है तभी शायद ,
       ज़िन्दगी इतनी बेरंग है ....
       वो गलियां शायद रंगीन न थी ,
       रंगीन थे भी,तो,किस्मत पर लगे पैबंद,
      कभी सुर्ख,कभी स्याह,कभी सब्ज़
      तो कभी कोरे ...........




   वेदांश 

अर्थ का अनर्थ .......(गुमनामी एक पंथ,मज़हब या फिर ..........)

  परेशां हो खुद की दलीलों से ,
अपनों से बेगाना हो ,
बैठा जब इन पत्थरों पर,.
ख़ामोशी को सुना ,बेहोशी गंवाई ,सपने आए,
पर नींद न थी.............
सपने दो तरह के होते हैं ,एक वो जो नींद के साथ आते हैं ,और दुसरे नींद खत्म होने के बाद,मेरे ख्याल से इन दोनों में सिर्फ एक ही फर्क हो सकता है पहले में तुम डर सकते हो और दूसरे से तुम डरा सकते हो ...वैसे ये तो  बहुत ही बेतुखी बात है जो सिर्फ में ही कर सकता हूँ ........
अगर नींद पर पुराण जैसा कोई ग्रन्थ लिखा जाय ,तो मुझे पूरा भरोसा है कि वह एक नया इतिहास रचेगा ,इससे एक बड़ा नुकसान हो सकता है ,मेरी जमात के कई लोग बिलकुल मेरे जैसे ही इस ग्रन्थ को पढ़कर बड़े -बड़े वाइजों को मात दे सकेंगे,...ये भी मुमकिन हैं है एक नया ही पंथ शुरू हो जाय,सोच में ही सही मैं तो अभी से उस मज़हब का blueprint तैयार करने लग गया हूँ.अभी बहुत काम करने हैं,मज़हब का खाका तैयार करना है कुछ शर्तें तैयार करनी हैं,सबसे पहले तो ये ज़रूरी है कि मज़हब का नाम सोचा जाय ऐसे में मुझे एक महान आदमी का नाम याद आ रहा है, फिर मैं सोचता हूँ नाम में क्या रखा है इसीलिए उनके उच्च  विचारों को ही आप तक पंहुचा देता हूँ, वो ये कहकर मेरे छोटे से दिल में अपने लिए बड़ी सी जगह बना  गए  हैं कि ''अजगर करे न चाकरी पंछी  करे न काज,दास मलूका कह गए सबके दाता राम '' वाह क्या सोच है सबके दाता राम लेकिन मैं इतना कर्मठ तो हूँ ही कि एक आदमी के भरोसे नहीं बैठ सकता तो यहाँ पर राम कि जगह  कुछ विकल्ल्प  रख लेते हैं, मेरे लिए राम कि जगह कोई भी हो सकता है ,वो राम प्रसाद ये कोई भी राम हो सकता है ,..राम ही क्यों वो श्याम ,महेश,गणेश,दिनेश.... कोई भी हो सकता है या सब के सभी हो सकते हैं अब ये तो मैंने कह ही दिया है कि नाम मैं क्या रखा है,इसीलिए  इस मज़हब को गुमनाम ही रखना ठीक है या नाम गुमनाम रख देते हैं,...चलो नाम कि सरदर्दी ओह माफ़ करना गुमनाम कि सरदर्दी हटी ,तो अब से हम इसे गुमनाम मज़हब कहेंगे..
  वैसे इस नाम से फ़ायदा भी है,लेकिन एक परेशानी भी आ सकती है धर्म परिवर्तन की,एक गुमनाम मज़हबी बदनाम हो सकता है पर एक बदनाम मज़हब वाला हमारे गुमनाम मज़हब में नहीं नहीं आ सकता ,ये तो बड़ी ही दिक्कत वाली बात है लेकिन अभी इसे छोडिये जब होगा तब देखा जायगा,अभी गुमनाम मज़हब का blueprint तैयार करना ज्यादा जरुरी है ,एक मज़हब बहुत विस्तृत होता है ऐसा मैंने सुना है इसीलिए ज्यादा पन्ने ख़राब करने में लगा हूँ क्यों की हर मज़हब की branches की अलग value  होती है ,तो ऐसा शो करने के लिए पन्ने ख़राब करना ज़रूरी है ,आखिर इन से ही तो मंत्र,शलोक और सुवचन जैसी क्रियाएँ निकलेंगी ,जिनको सीखकर कई विद्द्वानों को रोज़गार मिलेगा ,आखिर एक मज़हब शुरू करते हुए मुझे तो ये सब सोचना ही पड़ेगा .....
      ये एक तरीके से संक्षिप्त सार है आगे ज़रूरत के हिसाब से पन्ने दर पन्ने ,अध्याय दर अध्याय जुड़ते जायंगे...........
                                                                                                                                          क्रमशः ........




   


     वेदांश 
    
.

जनवरी 23, 2010

तभी तो इंसान हूँ मैं!


थोड़ा गिरा हुआ,थोड़ा संभला हुआ....
गर्दिशों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ ,
इंसान हूँ मैं..
हाँ ठिठक जाते हैं मेरे कदम,
उन बेगानों को देखकर ..
जो नसीब के भी अपने नहीं,
और हाँ...
कभी बहक भी जाते हैं मेरे कदम,
रिश्तों के नासूर अपनों को देखकर..
बैठता हूँ ,सोचता हूँ और सब भूलकर 
कुछ लिख ही लेता हूँ मैं .....
आज  रिश्ते तराजू में तुलते हैं ......
क्या तू ?क्या मैं ?
एक ही सांचे में सब ढलते हैं ,
तभी तो ...
इन्सान हूँ मैं ,बैमानों में ईमान हूँ मैं.....
आज मैं खाना नहीं ,
खान खाता हूँ...........
कभी कोयले की, कभी खुद की ..
मेरी उस खान में 
आदमी ही जलते हैं,
 कभी इधर के कभी उधर के ,
पानी नहीं,
 उसी आग को पीता हूँ मैं ...और अंगारे 
उगलता हूँ मैं,
क्या?इंसान हूँ मैं?
घरों को तोड़ मकान बनता हूँ मैं ,
बस्तियां भी तो घरोंदो को 
उजाड़ के ही बसा पता हूँ मैं ..............
भीड़ में खोना  मेरी फितरत है
 और भीड़ बनाना मेरी जरुरत ,....... 
रंगों में घुलना मेरी ज़िन्दगी है,
और सबको बदरंग करना मेरी मज़बूरी ,
तभी तो इंसान हूँ मैं ,बस इंसान ही हूँ मैं!




 वेदांश 

जाने क्यों... ??







जाने क्यों सब उल्टा- पुल्टा लगता है ,
हममे शायद,
 कोई और भी बसता है,
औरों के जख्मों को सीना होता है ,
तभी तो हमें मयकदों में
 पीना होता है ,  
मयकदों में शराब रोज़ ही गिरती है,
 पर पैमानों से तो कभी कभार ही छलकती है .
जाने क्यों सब उल्टा लगता है ,
हममे शायद कोई और भी ..... 
सूनसान जहां है सारा ,
हर कोई ,
किस्मत का है मारा....
और
 ये वेदांश जाने किस -किस से हारा.. 
कहते हैं ये दुनिया गोल है ,
कैसा ये सिस्टम ? जिसमे इतने होल हैं ,
बैठोगे ,सोचोगे तो जानोगे ..
क्यों? 
ये सब उल्टा लगता है..
और हममे भी कोई और बसता है ,
दिल की म्यान में दिमाग के खंज़र रखे है ,
और दिमाग की
ढाल में सैकड़ो पैबंद लगे हैं .....
किसी ने सीने में पत्थर रखे हैं ,तो किसी ने 
पत्थर में सीना मारा ..तभी तो .
आदम से सीखा हमने अश्कों को बहाना ,
जिस्म के सांचे में लहू जम गया है, और
आज एक और कवि मर गया है,....
इसीलिए तो सब उल्टा -पुल्टा लगता है ,और
हममे कोई और भी बसता है........................


     वेदांश