फ़रवरी 04, 2010

.....सन्नाटा !

सन्नाटा है... सन्नाटा है...
कैसा?
ये सन्नाटा है....
इस शहर के लोगों का,
क्यों ?
आपस में टूटा नाता है ..
कैसा?ये सन्नाटा है ...
रेत पकड़ने पर,हाथ किसके आती है,
छोड़ने पर थोड़ी तो शेष रह जाती है ..
पर फिर भी ये राग,
नहीं किसी को भाता है,
शायद!तभी शहर में इतना फैला सन्नाटा है.
मैखाने में तो हर कोई पैमाने छलकाता है ,
पर इस दुनिया में तो पैमाना ख़ाली ही रह जाता है ...
सन्नाटा है भाई सन्नाटा है......
चेहरों पे चेहरे,नकाब पे नकाब ...
उन रकीबों का क्या ?
वो तो हैं बेताब ................




 वेदांश 

क्यों....?

ज़िन्दगी गर कोई जीता है,
फिर क्यों वो पीता है....
कभी गम को,कभी अश्कों को ... 
क्यों वो पैमानों में रखता है ,
छलककर  जाम भी तो बहुत कुछ,
कहता है...
ख्वाबों कि इस दुनिया रहकर ,
कब, कोई कुछ होता है ......
हाँ लेकिन इस दुनिया में,
अँधा ही कहाँ अँधा होता है ...
बदलते मुकाम  रुकी ज़िन्दगी,
यही तो है अपनी पेशगी ...
आईने से उठता धुआं ,
खुद से मांगता पनाह ...
दर-ब-दर ठोकरें खाता,
अपने अक्स का कायल इन्सान ......




 वेदांश