फ़रवरी 04, 2010

क्यों....?

ज़िन्दगी गर कोई जीता है,
फिर क्यों वो पीता है....
कभी गम को,कभी अश्कों को ... 
क्यों वो पैमानों में रखता है ,
छलककर  जाम भी तो बहुत कुछ,
कहता है...
ख्वाबों कि इस दुनिया रहकर ,
कब, कोई कुछ होता है ......
हाँ लेकिन इस दुनिया में,
अँधा ही कहाँ अँधा होता है ...
बदलते मुकाम  रुकी ज़िन्दगी,
यही तो है अपनी पेशगी ...
आईने से उठता धुआं ,
खुद से मांगता पनाह ...
दर-ब-दर ठोकरें खाता,
अपने अक्स का कायल इन्सान ......




 वेदांश 

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