जनवरी 23, 2010

तभी तो इंसान हूँ मैं!


थोड़ा गिरा हुआ,थोड़ा संभला हुआ....
गर्दिशों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ ,
इंसान हूँ मैं..
हाँ ठिठक जाते हैं मेरे कदम,
उन बेगानों को देखकर ..
जो नसीब के भी अपने नहीं,
और हाँ...
कभी बहक भी जाते हैं मेरे कदम,
रिश्तों के नासूर अपनों को देखकर..
बैठता हूँ ,सोचता हूँ और सब भूलकर 
कुछ लिख ही लेता हूँ मैं .....
आज  रिश्ते तराजू में तुलते हैं ......
क्या तू ?क्या मैं ?
एक ही सांचे में सब ढलते हैं ,
तभी तो ...
इन्सान हूँ मैं ,बैमानों में ईमान हूँ मैं.....
आज मैं खाना नहीं ,
खान खाता हूँ...........
कभी कोयले की, कभी खुद की ..
मेरी उस खान में 
आदमी ही जलते हैं,
 कभी इधर के कभी उधर के ,
पानी नहीं,
 उसी आग को पीता हूँ मैं ...और अंगारे 
उगलता हूँ मैं,
क्या?इंसान हूँ मैं?
घरों को तोड़ मकान बनता हूँ मैं ,
बस्तियां भी तो घरोंदो को 
उजाड़ के ही बसा पता हूँ मैं ..............
भीड़ में खोना  मेरी फितरत है
 और भीड़ बनाना मेरी जरुरत ,....... 
रंगों में घुलना मेरी ज़िन्दगी है,
और सबको बदरंग करना मेरी मज़बूरी ,
तभी तो इंसान हूँ मैं ,बस इंसान ही हूँ मैं!




 वेदांश 

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