रिश्तों की मुक़र्रर सजा की सुनवाई है आज ,कुछ दलीलें इस तरफ से हैं और कुछ उस तरफ से,गवाहों की कहीं कोई कमी न पड़े यही तो कोशिश है सबकी . कठघरे में खड़ा है थोड़ा सच और थोड़ा झूट !शक्ल अलग है पर है वही .आज फिर लगेंगी बाजियां वही मोहरे होंगे ,वही प्यादे होंगे .तमाशे देखेगा खड़े हो वजीर और ये बादशाह होगा अपनी ही जुस्तजू में ................
फ़रवरी 16, 2010
वज़ूद
ज़बान से ज़ख्म खाए हैं, हमने... खंज़र क्या बोल पायेगा... हर नज़र ने जलाया है , रोशन आग... क्या ? बुझा पायेगी, यादों के सैलाब उमड़ते हैं , इस दिल में ... क्या आंधी , क्या तूफ़ान.. वज़ूद मिरा मिटा पाएंगे ....
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