मानव को कचोटती!
दिगदिगंत तक गूंजती,
एक आवाज़....
आवाज़,आदेश या
अनुगूँज...
अंतरिक्ष से आती,
अनन्त में समा जाती..
कोई ? समझ न पाता,
क्या ?
कोई ? समझ न
पाया,नहीं !
समझ गए वे,
जिनमे थी ,
समझ...
समझ,उतावलापन
या फिर ,
पागलपन....
समझ गए थे,
आइन्स्टीन,विवेकानंद और
अरस्तु ...
और
रची एक नयी श्रृष्टि ,
जिसने दी हमे ,
दृष्टि ...
समझ जाते गर हम भी ,
तो....
हमारे हिस्से की आवाज़ भी,
यूँ ही...न समा जाती अनन्त में ...
और
हम भी होते आज,
मार्ग प्रणेता ....
वेदांश.....
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