फ़रवरी 16, 2010

मानव को कचोटती!


दिगदिगंत तक गूंजती,


एक आवाज़....


आवाज़,आदेश या


अनुगूँज...


अंतरिक्ष से आती,


अनन्त में समा जाती..


कोई ? समझ न पाता,
क्या ?
कोई ? समझ न
पाया,नहीं ! 
समझ गए वे, 
जिनमे थी ,
समझ...
समझ,उतावलापन 
या फिर ,
पागलपन....




समझ गए थे,
आइन्स्टीन,विवेकानंद और 
अरस्तु ...
और 
रची एक नयी श्रृष्टि ,
जिसने दी हमे ,
दृष्टि ...
समझ जाते गर हम भी ,
तो....
हमारे हिस्से की आवाज़ भी,
यूँ ही...न समा जाती अनन्त में ...
और 
हम भी होते आज,
मार्ग प्रणेता .... 






 वेदांश.....  

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