नहीं रहा अब,वो सुकून ,
ज़ख्मों को कुरेदने में ,
यादों को सहेजने में,
टूटे शीशे जोड़ने में,
कुछ शर्तों को तोड़ने में,
और,
अपने साये को पीछे छोड़ने में...
हाँ गुरेज़ नहीं मुझे कहने से ,
ज़िन्दगी थी मेरी भी,
जैसे बिन पानी मीन,
पर,
कहने को हम भी आबाद थे ,इतने
न बर्बाद थे...
कुछ बेफ़िक्र से ,कुछ आज़ाद से ,
बंज़र टीले के मगरूर बादशाह से,
रोज़ो -शब्, शामो-सहर ..
रहती है एक ही ख़लिश दिल में,
काश न सुन पाते ,दिल की आवाज़....
वेदांश .....
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