मई 29, 2010

दरख़्त

भीड़ में बैठा अक्सर देखा  करता हूँ ......
हाड़-मांस के कुछ दरख्तों को,
सूखे से,सीना ताने..
अपनों के बीच बेगाने से,
लहू कबका सूख चुका है,
बचे हैं सिर्फ कुछ..
निशां...
 सुर्ख से,
क्या ये ???
साँस लेते होंगे....
हाँ ,दिल तो है,
पर धड़कन कहीं गम हो चुकी है,
स्याह,अँधेरी रात कि गहराईयों में ,
इन दरख्तों के वीरान जंगल से..
 जो भी गुज़रता है,
 वो तब्ब्दील हो जाता है
इन  दरख्तों में ...






          वेदांश...... 







2 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत गहरी सोच के साथ लिखी गयी....हाड़- मांस के दरख्त ....अच्छा रूपक है.

वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें...टिप्पणी देने में सरलता होगी

Himanshu Mohan ने कहा…

अच्छी रचना - गहन सोच में डूब कर रची गयी।